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________________ (२६४) विरक्त हूवा संता ज्ञानहीकू निरन्तर सेवै, ता श्रेष्ठपायश्चित होय. भावार्थ-निश्चय प्रायश्चित्त यह है जामें सर्वप्रायश्चितके भेद गर्मित हैं जो प्रमादर्ते रहित होय अपना शुद्ध ज्ञानस्वरूप प्रात्माका ध्यान करना यात सर्व पापनिका प्रलय होय है ऐसे प्रायश्चित्तनामा अभ्यन्तर तपका भेद कहया ॥ ४५३ ॥ ___ आगे विनय तपकौं गाथा तीनिकरि कहै हैं,विणयो पंचपयारो देसणणाणे तहा चरिचे य । वारसभेयम्मि तवे उवयारो बहुविहो णेओ ॥ ४५४ ॥ भाषार्थ-विनय पांच प्रकार है दर्शनदि ज्ञानविष तथा चारित्रविष बारह भेदरूप तपविषै पर उपचार विनय सो यह बहुत प्रकार जानना ॥ ४५४ ।। दसणणाणचरिचे सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो। वारसभेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसि ४५५ ___ भाषार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र इनिविषै बहुरि बारहमेदरूप ताकेविषै जो विशुद्ध परिणाम होय सो ही तिनिका विनय है. भावार्थ-सम्यग्दर्शनके शंकादिक अतीचार रहित परिणाम सो दर्शनका विनय है. बहुरि ज्ञानका संशयादिर. हित परिणाम अष्टांग अभ्यास करना सो ज्ञानविनय है.व. हुरि चारित्रकौं अहिंसादिक परिणामकरि अतीचाररहित पालना सो चारित्रका विनय है. बहुरि तसे ही तपके भेद
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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