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________________ (२६३) दोषका यथावत् कहना, प्रतिक्रमण-दोषका मिथ्या करावना, तदुभय-आलोचन प्रतिक्रमण दोऊ करावना, विवेकआगामी त्याग करावना, व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करावना, तप, छेद कहिये दीक्षा छेदन, बहुत दिनके दीक्षितळू थोड़े दिनका करना, परिहार-संघबाहय करना, उपस्थापना फेरि नवा सिरतें दीक्षा देना. ऐसे नव हैं इनिके भी अनेक भेद हैं. तहां देश काल अवस्था सामर्थ्य दृषणका विधान देखि यथाविधि आचार्य प्रायश्चित्त देहैं ताकू श्रद्धाकरि अंगीकार करै तामें संशय न करै ॥४५१ ॥ पुणरवि काउं णेच्छदि तं दोसं जइवि जाइ सयखंडं। एवं णिच्चयसहिदो पायच्छिचं तवो होदि ॥ ४५२ ॥ भाषार्थ-लाग्यादोषका प्रायश्चित्त लेकरि तिस दोष... किया न चाहै जो आपके शतखंड भी होय तौ न करै ऐसे निश्चय सहित प्रायश्चित्त नामा तप होय है. भावार्थऐसा दिढचित्त करै जो लाग्या दोषकों फेरि अपना शरीरके शतखंड होय जाय तौऊ सो दोष न लगावै सो प्रायः श्चित्त तप है ॥ ४५२ ॥ जो चिंतइ अप्पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी। विकहादिविरचमणो पायच्छित्तं वरं तस्स ॥ ४५३ ॥ __ भाषार्थ-जो बानी मुनि श्रात्माकू ज्ञानस्वरूप फेरि फेरि वारंवार चितवन करै, बहुरि विकयादिक प्रमादनिते
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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