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________________ (२६५) निकौं निरखि देखि निर्दोष पालने सो तपका विनय है ४५५ रयणतयजुत्ताणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए । भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ ४५६ भाषार्थ-जो रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका धारक मुनिनिके अनुकूल भक्तिकरि आचरण करै जैसैं राजाके पाकर गजाके अनुकूल प्रवत हैं तैसे साधुनिके अनुकूल प्रवचै सो उपचार विनय है. भावार्थ-जैसे राजाके चाकर किंकर लोक राजाके अनुकूल प्रवत हैं, ताकी आज्ञा माने, हुकम होय सो करें तथा प्रत्यक्ष देखि उठि खडा होय, सन्मुख होय. हाथहू जोडे, प्रणाम करें, चालै तब पीछे होय चालें, ताके पोमाख आदि उपकरण संवारें. तैसे ही मु. निनिकी भक्ति मुनिनिका विनय कर तिनकी आज्ञा पाने प्रत्यक्ष देखै तब उठि सन्मुख होय हाथ जोडै प्रणाम करें चलें तब पीछे होय चालै उपकरण संवारै इत्यादिक तिनका विनय करै सो उपचार विनय है।॥ ४५६ ॥ ____ आगें वैवानृत्य तपकौं दोय गाथाकरि कहै हैं,जो उवयरदि जदीणं उवसग्गजराइखीणकायाणं। पूजादिसु णिरवेक्खं विजावच्चं तवो तस्स ॥ ४५७ ॥ भाषार्थ-जो मुनि यति उपसर्गकरि पीडित होय तिनिका तथा जरा रोगादिककरि क्षीणकाय होय तिनिका अपनी चेष्टात तया उपदेश तथा प्रा वस्तु” उपकार करें
SR No.022298
Book TitleSwami Kartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychandra Pandit
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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