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________________ गुणेऽनुरागः क्रियते च यत्रा-, चार्यस्य चानन्दपदाश्रितस्य । पूता सुभक्तिः सुखदास्ति सैवा-, चार्यस्य भव्यैश्च सदैव कार्या ॥२८८|| जो मनुष्य अत्यंत भयानक संसाररूपी समुद्रमें पडे हुए हैं उनको दीक्षा देकर, उनके चारित्रका पालन कराकर, उनको ज्ञानामृत पिलाकर और उनको आत्मज्ञान प्रगट कराकर उन शिष्योंके जन्ममरणरूप संसारको हरण करनेवाल तथा उनको सुख शांति देनेवाले और अपने आत्मजन्य आनन्द स्थान में अपने आत्माको लीन करने वाले आचार्यके गुणोंमें जो अनुराग करता है उसको पवित्र और सुख देनेवाली आचार्य परमेष्ठीकी भक्ति कहते हैं। यह आचार्यभक्ति भव्यजीवोंको सदा करते रहना चाहिए ॥ २८७२८८ ॥ ज्ञातुर्यथावद्धि जिनागमस्य, सुपाठने वा पठने सदैव । दक्षस्य चानन्दरसाश्रितस्य, अज्ञानहर्तुनिजबोधकर्तुः ॥२८९॥
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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