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________________ १४३ भक्त्या ह्युपाध्यायविभो; कृपाब्धे, गुणेऽनुरागः क्रियते च यत्र। सैवास्ति भक्तिः सुबहुश्रुतस्य, . भक्त्या हि कार्या सततं सुभव्यैः ॥२९० जो उपाध्याय परमेष्ठी जिनागमके यथार्थ ज्ञाता हैं तथा उसी जिनागमके पठन पाठन करनेमें सदा निपुणता धारण करते हैं, जो सदा आत्मजन्य आनन्दामृत रसके आश्रय रहते हैं, जो अज्ञानको नाश करनेवाले हैं आत्मज्ञानको प्रगट करनेवाले हैं और कृपाके सागर हैं । ऐसे उपाध्याय परमेष्ठीके गुणोंमें भक्तिपूर्वक अनुराग करना उपाध्याय भक्ति अथवा बहुश्रुतभक्ति कहलाती है। यह उपाध्यायं भाक्त भव्य जीवों को भक्तिपूर्वक सदा करते रहना चाहिये ॥ २८९ ।। २९० ॥ द्रव्यादितत्त्वस्य यथास्थितस्य, सापेक्षदृष्टया प्रतिपादकस्य । नयप्रमाणैश्च सुशोभितस्य, निजात्मबुद्धेः परिवर्द्धकस्य ॥२९१॥ अनात्मबुद्धेः प्रपलायकस्य, जिनागमस्य क्रियते च यत्र ।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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