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________________ [१२४] धारयति क्षमा मौनं वा भवंति [दासिनः । जिनेन्द्रधर्मबाह्या हि ग्रस्ता मिथ्यात्वकर्मणा ६१ को गणोष्ट्रवच्चास्यं तिष्ठत्युध्दृत्य पापिनः । मुनयोऽपि भवन्तो ये स्वाध्यायं स्वात्मचिंतनम् ।। स्वरसस्य सदा पानमकृत्वा क्लेशनाशकम् । गृहस्थोचितकार्यं ये कुर्वति दुःखबर्द्धकम् ॥२६३ वैरादिवर्द्धकं कार्यं सदा कुर्वति पापिनः । तेऽपि निजात्मवाह्या हि ग्रस्ता मिथ्यात्वकर्मणा ॥ सर्वेषां हितहेतोश्चानवस्थानाशहेतवे । प्रोक्तं वा शिष्टपुष्टयर्थं कुंथुनाम्ना सतेति हि ६५ उत्तरः-जो मनष्य भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञाका पालन करनेवाले हैं, अपने अपने पदके अनुसार दान पूजा जप तप और उत्तम क्षमादिक धर्मोका पालन करते हैं । इसीप्रकार वे मनुष्य पापोंका त्याग करते हैं ध्यान उपवास करते हैं, वेष और आभूषण भी अपने पदके अनुसार पहनते हैं और अहिंसा आदि उत्तम व्रतोंको भी अवश्य पालन करते हैं इसप्रकार अत्यंत दयालु बुद्धिमान पूर्वाचार्य समस्त जीवोंका हित करने के लिये और इच्छानुसार प्रवृत्तिका नाश करनेके लिये निरूपण करते हैं।
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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