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________________ [१२९] 1 1 तथापि मिथ्याज्ञानरूपी ग्रहसे घिरे हुए कितने ही ऐसे पुरुष हैं जो ऊपर लिखे हुए आचार्योंके वचनोंको न सुनते हैं न जानते हैं तथा सुनकर भी उनका पालन नहीं करते | जिनधर्म बहिर्भूत और गृहस्थधर्म में लीन रहनेवाले कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो भक्तिपूर्वक भगवान अरतदेवके कहे हुए धर्मको धारण करनेवाले चारों प्रकारके संघकी और देव शास्त्र गुरुओंकी भक्ति तथा वंदना नहीं करते हैं, न शांति देनेवाले गृहस्थोंके योग्य कार्योंको करते हैं । जो साधर्मी पुरुष विद्या वा धन आदिसं रहित हैं उनके दुःखोंको भी दूर नहीं करते, विद्वान होकर भी जिनधर्मकी प्रभावना नहीं करते, अविद्याको नष्ट करनेके लिये पाठशालाओं की स्थापना भी नहीं करते और जो धन कमाना गृहस्थोंका मुख्य कार्य है उसको भी नहीं करते । इनमें कितने ही प्रतिमाधारी बनते हैं और कितने ही मूर्ख उदासीन बनते हैं परंतु अपने अज्ञानसे तथा इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेसे वे सब स्वयं अपने अपने पद से भ्रष्ट हो जाते हैं । उनमेंसे कितने ही तो ऐसे हैं जो मुनियोंकी क्रियाएं पालन करते हैं और कहते यह हैं कि हम लोग मुनियोंसे भी श्रेष्ठ हैं, हम अवश्य ही सम्यग्दृष्टि हैं " वे पापी सदा इसी प्रकार मानते रहते और अपने आत्माको दुःखी किया करते हैं । यदि कोई
SR No.022288
Book TitleBodhamrutsar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar
PublisherAmthalal Sakalchandji Pethapur
Publication Year1937
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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