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________________ ३० अध्यात्म-कल्पद्रुम के चारों तरफ किला, दरवाजे, बुरज, खाइयां, शतघ्नी यन्त्र, तैयार कराने चाहिए और नगर की रक्षा करनी चाहिए। नमिः-"श्रद्धारूपी नगरी का क्षमारूपी मज़बूत किला बनाकर तप-संयमरूपी भागल (रोक) लगा रखी है, मन, वचन और काया का नियमन क्रमशः बुरज, खाई व शताघ्नी यंत्र हैं । इनसे वह किला सुरक्षित व अजेय है । पराक्रमरूपी धनुष्य पर सदाचाररूपी प्रत्यंचा चढ़ाकर धृति (धैर्य) रूपी मूठ से उस धनुष्य को पकड़कर, सत्य द्वारा उसे खींचकर, तपरूपी बाण से कर्मरूपी कवच को भेदकर मैं उस संग्राम का अंत लाता हूँ अर्थात संसार से मुक्त होने का प्रयत्न करता हूँ। समता के अंग-चार भावना भजस्व मैत्री जगदंगिराशिषु, प्रमोदमात्मन् गुणिषु त्वशेषतः। भवात्तिदीनेषु कृपारसं सदा-प्युदासवृत्ति खलु निर्गुणेष्वपि ॥१०॥ अर्थ हे आत्मा ! जगत के समस्त जीवों पर मैत्री भाव रख ; गुणि जनों पर प्रमोद रख ; संतप्त (संसार से दुःखी) पर करुणा कर एवं निर्गुणी जीवों पर उदासीनता-उपेक्षा रख ॥ १० ॥ वंशस्थवृत्त विवेचन शास्त्रों में कहा है, "भावना भवनाशिनी" । संसार के तमाम जीवों को एक हो समान प्रेम से देखना चाहिए । कोई भी जीव किसी भी योनि या जाति का हो, हम उसके निस्पृह मित्र हैं, यह पहली मैत्री भावना है। दूसरी भावना में गणवान के प्रति आदर होने से विशेष प्रसन्नता होती है, यह प्रमोद भावना है ! दुःखी जीव को देखकर हमारे
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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