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________________ २६ रानियाँ चंदन घिस रहीं थीं जिनके कंकनों की रुनझुन ने उसकी पीड़ा और भी बढ़ा दी, जिससे रानियों ने सब कंकन खोलकर मात्र एक एक हाथ में रखा । वातावरण शांत हुवा जिसके कारण को जानकर राजा ने सोचा कि जिस प्रकार इतने कंकन एक साथ रहने से झनझनाहट होती थी और केवल एक ही रहने से शांति हुई, एक से दो हों तो बजें, केला बजे किससे । यह साधारण घटना उसके जीवन को पलटने वाली हुई | उसने निश्चय किया कि इतने सारे परिवार की अपेक्षा अकेले में अधिक सुख है । जब यह रोग मिटेगा तो मैं भी प्रकेला बन जाऊंगा । उसी रात को रोग शांत हो गया प्रातः वह सर्वस्व का त्यागकर वन में चला गया । संवेगी हुवा । वीतराग का उपासक बना। वहां राजा इंद्राकर कहता है कि:- हे राजा अग्नि और वायु के प्रकोप से तेरा घर जल रहा है; भयभीत हुई तेरी रानियों की तरफ तूं क्यों नहीं देखता है ? समता राजर्षि नमिः – जिसका अपना कोई नहीं है, ऐसा मैं सुख से रहता हूँ और जीता हूँ । यदि पूरी मिथिला भी जल जाय तो भी मेरा कोई नहीं जलता है । स्त्री पुत्र का त्याग कर निर्व्यापार भिक्षु के लिए प्रिय भी कुछ नहीं है और प्रिय भी कुछ नहीं है । मैं अकेला हूँ मेरा कोई नहीं है ऐसा जानने वाले और सर्व बंधनों से छूटे हुए गृहत्यागी भिक्षु को अपार शांति है । 1 देवेंद्र :- हे राजा ! तू क्षत्रिय है ! तुझे तो अपने नगर
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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