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________________ २६६ अध्यात्म-कल्पद्रुम अर्थ-तू दूसरों के पास से वसति (उपाश्रय) आहार, पुस्तक और उपधि (वस्त्र, पात्रादि) ग्रहण करता है। यह स्थिति तो तपस्वी लोगों की (शुद्ध चारित्र वालों की) है (अतः यह लेने का अधिकार तो मात्र तपस्वियों का है)। तू तो उनको स्वीकार करके वापस प्रमाद के वश में हो जाता है, तब बड़े करजे में डूबे हुए तेरे जैसे की परभव में क्या दशा होगी ? ॥ १६ ॥ उपजाति विवेचन—जैसे किसी वीर पुरुष को उत्साहित करने के लिए या उसके आलस्य को हटाने के लिए वीरोचित कटु शब्दों का प्रयोग किया जाकर उसे इच्छित मार्ग पर लाया जाता है वैसे ही धर्मवीर महाभाग्यवान पुरुष जो चारित्र ग्रहण कर मोक्षमार्ग की तरफ प्रयाण करता है परंतु प्रमाद के वश या रसना के लोभ के वश या अंध श्रद्धालुओं की अधिक भक्ति के वश या धीरे धीरे बढ़ते हुए परिग्रह के वश वह अपने वीर मार्ग में स्खलना करता है या चरित्र पालन में ढील करता है या धीमे धीमे अपने कर्तव्य से च्युत होता जाता है वैसे धर्मवीरं को वापस मार्ग पर लाने के लिए ग्रंथकार कहते हैं कि हे मुनि ! तू तो दुतरफा करज में डूबा जाता है । एक तो चारित्र ग्रहण करके प्रमाद प्राचरता है और दूसरा शुद्ध चारित्र न पालते हुए भी आहार आदि लेता है अतः जैसे करजदार मनुष्य ऊंचा सिर नहीं कर सकता है वैसे ही तेरी गति होगी। अपने प्रिय शिष्य या पुत्र को कटु कहकर प्रेरित किया जाता है इसमें पिता या गुरु की भावना दूषित नहीं होती है वैसे ही यहां भी है।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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