SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतिशिक्षा २६५ नहीं ! ऐसी अनहोनी विश्वास घातक घटना से वह क्षुब्ध होगा ! यह असंभव बात है कि कोई वृक्ष आग उगले । इसी तरह से संसार माया से क्लांत दुःखी संतप्त जीव तेरा आसरा ढूंढते हैं तेरे चरणों में अपना जीवन समर्पण कर देते हैं परन्तु हे ठग, यदि तू स्वयं हो प्रमाद आदि के द्वारा संतप्त है, संसार समुद्र में गिरता जा रहा है तो तेरे आसरे रहे हुए प्राणी को तू क्या बचा सकता है। जैसे हरे वृक्ष में से अग्नि की ज्वाला असंभव है वैसे ही सच्चे यति या मुनि के लिए पतन या पातन अशक्य है। जैसे कृत्रिम वृक्ष में से अग्नि प्रगट हो सकती है वैसे ही मात्र वेशधारी कृत्रिम साधु में सब दोष संभव हो सकते हैं । वैसा साधु या यति स्वयं भी पाप में लिप्त होता है और भक्तों को भी पाप में लपेटता जाता है । हे साधु, तेरे वेश में और वर्तन में वह शक्ति है कि तू स्वयं भी तर सकता है और अन्य को भी तार सकता है। प्रमाद को छोड़कर तू वीर बन और इस बीसवीं सदी के संतप्त, भयग्रस्त और मार्ग ढूंढते हुए प्राणियों का मार्गदर्शक बन । उनका दुःख दूर कर। इसी प्राशा से तेरा आसरा श्रद्धालु लेते हैं अतः स्वयं भी तर और दूसरों को भी तार । नहीं तो पत्थर की नाव की तरह से तू स्वयं भी डूबेगा और अन्य को भी डुबावेगा । केवल अपने अंध भक्तों के वाड़े में बंधा हुवा तू अपना जीवन बर्बाद न कर, धर्म की सेवा कर । निर्गुणी को होता हुवा ऋण और उसका परिणाम गृह्णासि शय्याहृतिपुस्तकोपधीन्, सदा परेभ्यस्तपसस्त्वियं स्थितिः। तत्ते प्रमादाद्भरितात्प्रतिग्रहैऋणार्णमग्नस्य परत्र का गतिः॥१६।।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy