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________________ यतिशिक्षा ส अपने कौन से गुण के लिए यश की इच्छा रखता है ? २६७ न कापि सिद्धिर्न च तेऽतिशायि, मुन क्रियायोगतपः श्रुतादि । तथाप्यहंकारकर्दार्थतस्त्वं ख्यातीच्छ्या ताम्यसि धिङ मुधा किम् अर्थ - हे मुनि ! न तो तेरे में कोई विशेष सिद्धि है, न उच्च प्रकार की क्रिया, योग, तपस्या या ज्ञान ही है; फिर भी अहंकार से कदर्थना पाया हुवा. प्रसिद्धि पाने की इच्छा से धम ! तू फालतू परिताप क्यों सहता है ? ।। १७ ।। उपजाति विवेचन - हे मुनि, तू निरर्थक परिताप क्यों सहन करता है ? यदि तेरे में अणिमा आदि आठ सिद्धियां हों अथवा उच्च प्रकार की भ्रातापना सहने की या घोर परिषह - उपसर्ग आदि सहने की शक्ति हो या योग वहन अथवा योग चूर्णादि तुझे प्राप्त हों या घोर तपस्या, मासक्षमण आदि तूने किए हों अथवा सूत्र सिद्धांत का रहस्य पाने जितना अभ्यास किया हो या गीतार्थ बनने योग्य ज्ञान तूने पाया हो तब तू मान पाने की इच्छा करता हो तो ठीक है ( यद्यपि इतने विद्वान या तपस्वी मान करते ही नहीं हैं ) यदि इतना नहीं है तो तू क्या देखकर अभिमान करता है । हे साधु ! गुण तो कस्तूरी जैसा है । वह जहां होता है प्रगट हो ही जाता है, जैसे कस्तूरी छुपी नहीं रह सकती वैसे ही गुण भी छुपा नहीं रह सकता है, गुणी की पूजा तो अवश्यमेव होती है । ३६
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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