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________________ २३० अध्यात्म-कल्पद्रुम से ग्रहण कर लिया है । देखते ही देखते वे मर गए हम रोते रह गए। कोई घर पर मरा, कोई परदेश में मरा, कोई डूब कर मरा, कोई जलकर मरा, कोई टो० बी० से मरा तो कोई हैजे से मरा। कइयों को हमने चित्ता में रखकर अपने हाथों से जलाया, निरीह बच्चों को जमीन में गाड़ा उस वक्त तो वैराग्य उत्पन्न हुवा कि संसार प्रसार है, सब झूठा है लेकिन फिर गांव की हवा लगी नहीं कि विचार बदल गया। हम भूल जाते हैं कि हमें भी मरना है ? चाहे भूलें चाहे याद रखें, सावधान रहें या असावधान निश्चित ही एक न एक दिन तो हमको मृत्यु का महमान बनना ही है तो फिर क्यों न दूसरों की मृत्यु से शिक्षा प्राप्त कर बार बार जन्मने-मरने की उपाधि में से बाहर निकलें, अर्थात मोक्ष का प्रयत्न क्यों न करें। पुत्र-स्त्री या संबंधी के लिए पाप करने वालों को उपदेश यः क्लिश्यसे त्वं धनबंधवपत्य यशःप्रभुत्वादिभिराशयस्थैः । कियानिह प्रेत्य च तैर्गुणस्ते, साध्यः किमायुश्च विचारयैवम् २२ अर्थ-पाशा और कल्पना में रहे हुए धन, सगे संबंधी, पुत्र, यश, प्रभुत्व आदि से तू क्लेश पाता है, परन्तु तू विचार तो कर कि इस भव में और परभव में उनसे कितना लाभ उठाया जा सकता है और तेरा आयुष्य कितना है ? ॥ २२ ॥ उपजाति विवेचन अपने माता पिता, पुत्र, स्त्री, संबंधी को प्रसन्न रखने के लिए या उनके लिए व धन कमाकर व भवन बनाकर
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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