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________________ वैराग्योपदेश २२६ अर्थ- हे जीव ཊཱ कर्म तो ऐसे करता है जिनके द्वारा तुझे भविष्य में अनंत आपत्तियां हों तब होने वाली आपत्तियों के भय से तू अभी ही अत्यंत आकुल व्याकुल क्यों नहीं होता है ? ।। २० ॥ इंद्रवज्रा है कि जीव को विवेचन - शास्त्रपठन से विदित होता नरक या तिर्यंच में किस प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं और वह यह भी जानता है कि किन कर्मों से नरक तिर्यंच गति मिलती है फिर भी उन कर्मों से दूर नहीं रहता है । यदि वह उनसे दूर रहता तो संसार के दुःख कभी के मिट गए होते । जिन दुःखों को सुनने मात्र से ही रोमांच हो जाता है वे दुःख जिन पापकर्मों से होते हैं उन पाप कर्मों को करना तू छोड़ दे फिर दुःख का डर ही नहीं रहेगा, तेरी सब व्याकुलता नष्ट हो जाएगी । साथी की मृत्यु से शिक्षा ये पालिता वृद्धिमिताः सहेव, स्निग्धा भृशस्नेहपवं च ये ते । यमेन तानप्यदयं गृहीतान्, ज्ञात्वापि किं न त्वरसे हिताय ।। २१ ।। अर्थ – जो तेरे साथ पाले पोषे गए और बड़े भी तेरे साथ में ही हुए, एवं जो तेरे अत्यंत स्नेही थे तेरे प्रेम पात्र थे उनको यमराज ने निर्दयपन से छीन लिया है, ऐसा जानकर भी तू आत्महित करने के लिए जल्दी क्यों नहीं करता है ? ||२१|| उपजाति विवेचन – हमारे बचपन के साथी, सहपाठी, मित्र, सगे संबंधी, कुटुम्बी, प्रिया, श्रात्मज सभी को काल ने निर्दयपन 1
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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