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________________ वैराग्योपदेश २३१ अनेक प्रकार की सुख सामग्री छोड़कर जाने के लिए हम सदा. मेहनत करते हैं परन्तु अपने लिए कुछ भी नहीं करते हैं हम सोचते हैं कि जरा से व्यवस्थित हो जावें तब धर्म करेंगे लेकिन कालदेव हमारे लिए प्रतीक्षा नहीं करेगा, चाहे हमारा काम पूरा हो या अधूरा वह तो ले ही जावेगा अतः इन माने हुए सुखों में लिप्त न होकर प्रात्म हित कर लेना चाहिए। परवेशी पथिक का प्रेम, हितशिक्षा किमु मुह्यसि गत्वरैः पृथक् कृपणैबंधुवपुःपरिग्रहैः । विमृशस्व हितोपयोगिनोऽवसरेऽस्मिन् परलोकपांथ रे ॥२३॥ ___ अर्थ हे परलोक के पथिक ! अलग अलग चले जाने वाले और तुच्छ स्वभाव के बंधु, शरीर और वैभव से तू क्यों मोहित होता है ? इस समय में (पर भवरूपी विदेश यात्रा में) तेरे सुख में जो वास्तविक वृद्धि कर सकते हों ऐसे उपायों का विचार कर ।। २३ ।। गीति विवेचन–रात्रि को विश्राम लेने वाले सराय के मुसाफिरों की तरह या जंगल में चरते हुए दुपहर को आराम लेने वाले पशुओं की तरह या रेल्वे प्लेट फार्म पर गाड़ी की प्रतीक्षा करने वाले मुसाफिरों की तरह ये तेरे कुटुंबी बंधुबांधव भी सदा साथ रहने वाले नहीं है सब ही अलग अलग गति में जाने वाले हैं, तेरा इनका संपर्क अल्पकाल के लिए है अतः तू उनके मोह जंजाल से दूर रहकर अपने गंतव्य को सुधार ले। हे परभव के पथिक ! तू अकेला पाया है और अकेला जाएगा, तेरा कोई साथ देने वाला नहीं है अतः अपना भला
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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