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________________ वैराग्योपदेश २०५ धन्नाजी व शालिभद्रजी के पुण्य कितने प्रबल थे। उनको सब ही सुख प्राप्त थे फिर भी इस सांसारिक सुख को छोड़कर अव्याबाध सुख की प्राप्ति के लिए उन्होंने कदम उठाया । तेरे में कोई गुण नहीं है, सन्मान योग्य कोई कला या विद्या भी नहीं है फिर भी प्रशंसा व सन्मान चाहता है यह तेरा पागलपन नहीं है तो और क्या है ? यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा व समाधि इन अष्टांग योगों के बिना तू सिद्धि चाहता है, यही तो विचित्रता है ? प्रत्येक वस्तु की अभिलाषा की अपेक्षा अधिकारी बनना चाहिए। पुण्य के अभाव से अपमान और पुण्यसाधन का अनुकरणीयपन पदे पदे जीव पराभिभूतीः, पश्यन् किमीय॑स्यधमः परेभ्यः । अपुण्यमात्मानमवैषि किं न, तनोषि किं वा न हि पुण्यमेव ॥६॥ ___ अर्थ हे जीव पद पद पर दूसरों द्वारा अपना अपमान देखकर तू अधमपन से उन पर ईर्षा क्यों करता है ? तू अपने आपके पुण्यहीनपन को क्यों नहीं देखता है अथवा पुण्य ही क्यों नहीं करने लग जाता है ? ॥ ६ ॥ उपजाति विवेचन अयोग्य होने से अपमान होता है अतः अपमान करने वाले पर ईर्षा करने एवं मन में आर्त रौद्र ध्यान करने की अपेक्षा उस अयोग्यता को मिटाने का उपाय करना चाहिए । गत भवों का पाप उदय में है अतएव अपमान होता है अतः उन समस्त भवों के पापों को मिटाने के लिए
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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