SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ अध्यात्म- कल्पद्रुम पुण्य का सेवन करना चाहिए व ऐसे कर्म करने चाहिए जो पुण्यानुबंधी पुण्य कराने वाले हों वैसे कर्म, धर्म के आधारभूत ही हो सकते हैं । पाप से दुःख और उसका त्याग किमर्दयन्निर्दय मंगिनो लघून्, विचेष्टसे कर्मसु ही प्रमादतः । यदेकशोऽप्यन्यकृतार्दनः सहत्यनंतशोऽप्यंग्ययमर्दनं भवे ॥ १० ॥ अर्थ - तू प्रमाद से छोटे छोटे जीवों को पीड़ा देने के कामों में निर्दयपन से क्यों प्रवृत्ति करता है ? जो प्राणी दूसरे प्राणी को एक बार पीड़ा देता है वही पीड़ा उसे अनंत बार अन्य भवों में सहनी पड़ती है ।। १० ।। वंशस्थविल नित्य प्रति करते नहीं होता है ही विवेचन - प्रमादों का वर्णन पीछे आया है । उन प्रमादों से हम अनेक छोटे छोटे जीवों की हत्या रहते हैं और हमें उसका कुछ भी विचार न भय ही लगता है । इससे भी बढ़कर दुःख की बात तो यह है कि कई प्रकार के मनुष्य जो जीवहिंसा के धंधे को अपनाए हुए हैं, जीवों को मार कर ही अपना और अपने परिवार का पेट भरते हैं वे कितने दया के पात्र हैं । ओह ! उनके अंधकारपूर्ण क्रूर मन जरासी दया की किरण भी नहीं है वे बेधड़क बकरे पाड़े मछलियां आदि मारते हैं, खाते हैं और बेचते हैं । उनकी आत्मा पर पूर्ण तरह से परदा पड़ गया है व दिन प्रति दिन वह पर्दा तीव्रतर होता जाता है। शुरूआत में प्रत्येक पाप करते हुए आत्मा को आघात लगता है, भय लगता है उसी वक्त यदि मन की में
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy