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________________ १८२ अध्यात्म-कल्पद्रुम तपाते हैं वे चांद्रायण आदि-तप। वीतराग का ध्यान-देवता प्रणिधान । यम भी पांच प्रकार के हैं-अहिंसा, सुनृत, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अकिंचनता। जिसका मन सदा सब परिस्थियों में समाधि युक्तसमता युक्त रहता है उसे फिर यम नियमों से कोई प्रयोजन नहीं है एवं जिसका मन उद्विग्न या निरंकुश है उसे भी इन यम नियमों से कोई लाभ होने वाला नहीं है। यहां यम नियमों की अनावश्यकता न बताकर यह बताया है कि मन को वश किए बिना ये कुछ भी लाभ न देंगे। बाकी यम नियमों पर चलने से ही मन वश में होता है । श्रीमद् यशोविजयीजी ने लिखा है कि: जब लग मन आवे नहिं ठाम, तब लग कष्ट क्रिया सब निष्फल ज्यों गगने चित्राम ।। अन्यत्र भी शास्त्रकार कहते हैं कि:राग द्वेषौ यदि स्यातां, तपसा कि प्रयोजनम् । तावेव यदि न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ।। अर्थात्-यदि राग द्वेष हैं तो तप से क्या काम है और यदि राग द्वेष नहीं हैं तो फिर तप से क्या काम हैं। श्रीमद् यशोविजयजी ने फिर आगे लिखा है कि:"चित्त अन्तर पर छलवे कुंचितवत् क्या जपत मुख राम । अर्थात चित्त तो दूसरे को ठगने में सोच रहा है, तब
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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