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________________ ( ८६ ) वानो विधि अवश्य साचववो जोइए. निदान के त्यागीने एक स्थानमा रहेवू सर्वथा हानिकर छे माटे अहीं " अनियतविहारकल्पः " ए पद ग्रंथकर्ताए साधुओ माटे उचित ज कयुं छे. "काउस्सग्ग" ___फरी मुनिए हम्मेशा कायोत्सर्ग करवो जोइए. अवलमां तो साधुए नित्य पोतानी समयोचित उचित क्रियाकांडथी निवृत्त थइ सूत्राभ्यास करवो, कराववो, अर्थ आदिने विचारवा, विचराववा, एवं लोकस्वरूप, अनित्यादि संसारनी बार भावनाओ, मैत्री आदि समकितनी भावनाओ, पंचमहाव्रतनी पच्चीस भावनामो, देह अने आयुष्यादिनी स्थितिओ, कर्मनुं स्वरूप, आत्मा तथा कर्मनो संबंध ने प्रत्येकनुं स्वरूप विगेरे पदार्थ पर बहु बहु विचारो करवा, धर्मध्यान अने शुक्लध्यानना पायाओ ध्याववा. बाद शरीरनी मूर्छा अल्प करवा, आत्मानुं अडग बल प्राप्त करवा, कषायोने निर्बळ करवा, एकान्त स्थानमां, शून्य खडियेर मुकाममां, श्मशान अने अरण्यादिकमां दिवसे अने निशाये कायोत्सर्ग जरुर करवो. एटले जे क्रियामां पोताना आत्माने स्थिर वधता परिणामवाळो बनावी देहना संस्कारो, शुश्रूषामो त्याग कराय, गमे तेवा उपद्रवो अर्थात् गजसुकुमाल मुनि माफक प्राणांतकष्टो पण आवी पडे, डांस, मत्सरादि पीडा उपजावता होय तथापि आत्मा पोतार्नु शुभध्यान त्यागे नही; किन्तु परमात्मानुं अथवा आत्मस्वरूपचेंज
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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