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________________ “ अनियतविहार " " (56) स्पष्टीकरण - मुख्यतया साधुए एक जग्याए अधिक काल रहेवुं न जोइए. संसारत्याग कर्या पछी, मोहना बंधनो छोड्या पछी फरी एकज स्थानपां रहेवाथी साधुओने अनेक प्रकारना दोषो लागु थाय छे. प्रथम तो एक स्थानमां लांबा काल पर्यंत रहेवाथी लोको साथै, पदार्थो साथै अने स्थान साथे जरुर मोह बंधाइ जाय छे यावत् आ मोह पाछळ अनेक खटपट अने प्रपंचो पण उभा थाय छे एटले साधुपशुं स्वीकार्या छतां एक संसारी करतां पण अधिक विटंबणा आ महात्मा ( 1 ) ने सहवी पडे छे, एवं लोको अति संबंधां आववाथी धर्मगुरुपणानी भावनानो त्याग करी एक सामान्य संबंध धराववा लागी जाय छे. परिणामे निंदापात्र बनी लोकोने धर्मश्रद्धा प्रति स्खलित आशयवान् करे छे. अतएव साधु एक स्थानमां अधिक समय न रहेतां भिन्न भिन्न क्षेत्रमां विचरनुं जोइये. परमार्थ के - " गाये एग राई गरे पंच राई " ए शास्त्राज्ञा प्रमाणे ग्राममां एक रात्रि अने शरमां पांच रात्रि जघन्यथी रहेवुं विशेषमां चातुर्मास सिवाय एक महिनाथी अधिक रहेवुं न कल्पे. यदि शरीर अशक्त होय, रोगादि कारणो होय अथवा तेवा प्रतिकूल संयोगो उभा थया होय तो पण एक महोनो छोडी बीजा महोल्लामां, एक उपाश्रयथी बीजा उपाश्रयमां ने छेवटे एक खूणाथी अन्य खूखामा ए प्रमाणे स्थान बदली मासकल्प कर
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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