SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (59) ध्यान धरे. मन, वचन अने कायानी एकाग्रता - अविचलता राखी, नासिकाना अग्रभाग पर दृष्टिने स्थिर करी, ऊर्ध्वदेहपणे शरीरनुं एक पण रुबाहुं फफडाव्या विना अप्रमत्तभावे आत्मा स्थिर रहे तेनुं ज नाम अहीं कायोत्सर्ग कह्यो छे. 'आवश्यक' सूत्रमां काउस्सग्गनुं मुख्य फल 'वर्णतिगिच्छा' कधुं छे. जेम देह पर गुमडा विगेरे थया होय तो तेनी मलमपट्टी विगेरेथी शान्ति कराय छे एवं आत्मा पर दोषोरूपी जे गुमडा थया होय के जेनी शान्ति प्रतिक्रमवाथी एटले वारंवार निंदनाथी, पश्चात्ताप करवाथी न थाय तेवा प्रबळ दोषो - पापोनो नाश या काउस्सग्ग ध्यान करवाथी निश्वयेन थाय छे. अतएव छ आवश्यकमां प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक पछी आ काउस्सग्ग नामक पांचमुं आवश्यक व्रतधारी माटे करवानुं सर्वज्ञ भगवंते निर्देश्युं छे. निदान के उपरना पापोने आ कायोत्सर्गरूप क्रिया जरुर शान्त-निर्मूल करे छे. अतः साधुए हमेशा काउस्सग्ग करवो जोइए. "श्रासन " मूलमां' कायोत्सर्गादि ' ए पद आप्युं छे. अत्रस्थ आदि शब्दयी ' निषद्याकरण मासेवनम् ' टीकाकार जणावे छे. न्यायविशारद उपाध्यायजी महाराज ' आदिनातापनादिग्रहः ' कहे छे. अर्थात् जेम साधुए कायोत्सर्ग हमेशा करवो जोइए, तेम एक ज स्थानमां कायाने स्थिर करी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy