SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६४) जेमके-द्रव्यथी अमुक ज माहार, क्षेत्रयी अमुक घरनो अगर अमुक जग्याए, कालथी अमुक समये अने भावथी श्री अथवा पुरुष के बाळक अमुक वयना, अमुक रंगना कपडा पहरेला होय-आ रीते अभिग्रहो धारण करी अग्लानभावे, अप्रमादपणे तेनो निर्वाह करे. वळी नित्य दुध १, दहीं २, घी ३, गुड ४, तेल ५, तळेल चीजो ६-श्रा ६ विगयमांथी अमुक विगयनो त्याग करे, अने उपवास, छ?, अम आदि तपस्याने पारणे एक सिक्थ, वे सिक्य आदि आहार अंगीकार करे. पा रीते मुनि-प्राचारनुं सुंदर स्वरूप प्रतिपादन करवू, जेथी बालश्रोता सारी रीते धर्ममार्गमां आवी शके. पुनः प्राचार्यश्री जणावे छेभनियतविहारकल्पः कायोत्सर्गादिकरणमनिशं च ॥ इत्यादि बाह्यमुच्चैः कथनीयं भवति बालस्य ॥ ५-६ ॥ मूलार्थ साधुए अनियमित रीते विहार करवो तथा इम्मेवा कायोत्सर्ग विगैरे उचित क्रियाओ जरुर करवी. मा विगेरे सर्व बाह्याचार संबंधी उपदेश बालजीवो पासे कयन करवो.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy