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________________ ( ७२ ) मूलार्थ – उपदेशके अहीं उपदेशविधिमा प्रथम तो बालवर्ग पासे बाह्य चारित्रनी प्राधान्यता एटले मुनिवेशनी मुख्य प्रशंसा जेमां होय एवी देशना आपवी, तथा उपदेशके पण नियमेन तेयोनी सामे तेवो ज आचार पालवो जोइये. "अयोग्य उपदेशनुं परिणाम." स्पष्टीकरण - " बाह्य एवो मुनि आदिनो वेश, बाह्य एवी अन्य क्रियाओ तेमज बाह्य आचार-वर्तन देखीने जेश्रो खुशी थाय, धर्म पामे ते बालवर्ग” आ बात गत प्रकरणमां आचार्यश्री कही गया छे. परमार्थ केबालजीवो बाह्याडंबरमा वधारे श्रद्धालु होय छे, कारण के ने विशिष्ट विवेक तथा दीर्घ विचार न होवाथी तेम बनवुं उचित छे. निदान के बालवर्गनी वी स्थिति होवाथी यदि उपदेशक धर्मोपदेश आपता या लोको सामे “ बाह्य वेशनी असारता, अन्य वाह्य क्रियाओनी गौणता, एवं बाह्य वर्तननी आडंबरता, तेमां धर्म नथी, पासत्थाओ, वेशविडंबको अने भांडो पण आजीविका माटे, अन्य स्वार्थ माटे तेवो वेश, तेवी क्रियाओ तथा ते आबेहुब वर्तन करे छे छतां आ लोकोमां धर्मनो लवलेश देखातो नथीः माटे धर्म तो तत्वमार्गमां ने आत्मानी शुद्ध परिणतिमां ज होय छे, शिवाय वेश के क्रियाओ तो एकडा वगरना शून्य जेवी ज समजवी. " या रीतनो उपदेश अपाय तो नितान्तेन तेनुं ज एकान्त पोषण
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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