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थाय तो ते बाललोको तुरतज धर्म प्रति मंद भादरवाला थइ धर्मशून्य-प्रश्रद्धालु बनी जाय छे. अरे! विमुख परिणामवाला थाय तो पण आश्चर्य नहीं. " उपदेश प्रकार" ____ अतएव ग्रंथकर्ता स्पष्ट कहे छे के-" इह" उपदेश विषयमां उपदेशके ते बालजीवो विपरिणामी न बने, अश्रद्धालु न थाय माटे तेश्रोनी प्रकृति अनुकूळ क्रमशः गुणवृद्धि थाय, तेश्रो सन्मार्गारूढ बने, तेश्रोनी धर्मप्रीति वधे तेम बाह्यवेश, बाह्यक्रिया अने बाह्यवर्तननी प्राधान्यता जेमां होय तेवो धर्मोपदेश उपदेशके आपवो; तथा वक्ताए पण वर्तन अने क्रियानो तथाप्रकारे ज ते लोको सामे प्रेमपूर्वक आचरवी, जेथी ते लोको आधिक्येन धर्मश्रद्धालु बनी उपदेशक पर अनुरागी पण थाय. अन्यथा या लोको उपदेश अन्यथा प्रकारनो तथा आचरण भिन्न प्रकारचें निहाळी शीघ्र ही शंकाशील बनी अविश्वासु थाय छे. ते ज उपदेश अने उपदेशक प्रति मंद आदर के अनादरवाळा बनी परिणामे धर्ममां पण किंचित अदढ परिणामी थइ जाय. निदान के-'परोपदेशे पांडित्यं' ए वाक्यनो लोको तुरतज उच्चार करे,-'पोथीना रिंगणा' जेवं कहे. अतएव अहीं ग्रंथकर्ता भार मूकीने कहे छे के“ नियमतः सेव्यः" नियमेन वक्ताए पण जेवो उपदेश प्रापवो तथाप्रकारे ज वर्तन सेवq. एटले उपदेश अने वर्तनमा द्विधाभाव न करवो जोइए, अर्थात् उपदेशके " चित्ते वाचि