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________________ __ ( ७० ) तो श्रद्धालु, विश्वासु अने अतिअल्पज्ञ होवाथी ग्रंथकर्ताना वाक्योपर ज निर्भर रहे छे. निदान के-एकान्त आदेयरूपे माने छे. आथी ग्रंथाज्ञा प्रमाणे वर्तन करी परिणामे ते लोको कल्याणना बदले विश्वासथी स्वात्मानुं अकल्याण ज करे. एटले आवं महत् पाप ते स्वतंत्र प्राचार्यनी बुद्धिथी ज पेदा थयु, एम विनासंकोचे मानवू जोइए. अतएव सज्जन अने शिष्टनो ए वास्तविक धर्म छे के पूर्वपुरुषना पंथे चाली तेवी वस्तुतत्त्वनी प्ररूपणा करवामां पराधीनता ज दर्शाववी-राखवी. निष्कर्ष के अल्पज्ञे सर्वज्ञोना अने महद् ज्ञानीोना वचनाधारे पदार्थनी व्याख्याओ करवी ए न्याय्य गणाय. अहीं मूलमां "अयं" शब्द एटला माटे ज ग्रंथकर्ताए धर्यो छ के-श्रा आगलनी आर्याोथी साक्षात् दृश्यमान एवी सद्धर्मनो देशनाविधि हुँ जणावीश. जे विषय अनंतरपणे समीपमां ज-साक्षात् देखाडवानो होय छे त्यां ज अयं शब्दनो प्रयोग थाय छे. हवे उपर देखाडेला संबंधना अनुसारे बाल, मध्यम अने बुध पकी धर्मदेशनामां प्रथम बाल योग्य धर्मदेशनानो प्रकार अने उपदेशके पण तथाप्रकारे ज वर्तवू जोइये, ए वात प्राचार्यश्री जणावे छेबाह्यचरणप्रधाना, कर्त्तव्या देशनेह बालस्य ॥ स्वयमपि च तदाचार स्तदग्रतो नियमतः सेव्यः ॥२-२॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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