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________________ ( ५६ ) शक्या तेथी तेप्रोनो उत्साह अधिक उद्दीप्त थयो अने हजी पण अन्य विभाग माटे तलपापड थाय छे. एटले वर्तमानमा आपणी दृष्टिये जे विभागो न जणाय ते विभागो नथी एवं कथन करवं ते नितान्त आग्रहज गणाय. पाथी सर्वज्ञप्ररूपित जैन शास्त्रो पहेलाथीज पृथ्वीना अनेक विभागर्नु वर्णन करे छे ने ते विभागो एवा के के ज्यां विशिष्ट बल शिवाय सामान्य जनता जइ शके नहीं. आ विभागोमां केटलाक विभागो अहींनी बराबर स्थितिवाला छे भने केटलाक विभागो अहीं करतां पण अति उच्च स्थितिवाला छे, के ज्यां सर्वदा नितान्त सुख, वैभव, म्होटा बलवान् शरीरो अने अनंतज्ञानीग्रो वर्ती रह्या छे. अतएव सर्वज्ञवचन पा सर्व क्षेत्रनी अपेक्षाए विचार करता सर्वदा विद्यमान होवाथी एटले महाविदेहादि क्षेत्रोमां सर्वज्ञो हम्मेशा विहरमान रहेवाथी तदपेक्षया अनादि शाश्वत वचन अहीं शास्त्रकर्ताए जणाव्यु. निदान के-उत्तम शास्त्रवाक्यनी परीक्षा करता शास्त्रवाक्यो उपर कह्या प्रमाणे सर्वज्ञकथित अने आदिअनादिभाव अलंकृत छे के नहीं ? ए वात जरूर तपासवी. या परीक्षाने महर्षियो भैदंपर्य-परमार्थ शुद्ध परीक्षा निर्देशे छे. निष्कर्ष-आq वचन ज परलोक माटे आत्माने उपकारी थाय, शिवाय तो अन्यना वचनना आलंबनथी प्रात्मा संसारगर्तमांज गोथा खाय ॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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