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________________ (५७) बस अहीं सुधी ग्रंथकर्ताए सत् धर्मना परीक्षक एवा बाल, मध्यम, बुधवर्गनुं स्वरूप तथा परीक्षा अने परीक्षाना प्रकारो दर्शाव्या. हवे ा लोकोने धर्मोपदेश आचार्ये केवो आपयो जोइये जेथी आ लोकोने पण यथास्थित धर्मनो ख्याल आवे, आ हेतुथी ग्रंथकर्ता हवे उपदेश आपवानी रीति दर्शावे छेबालादिभावमेवं सम्यग्विज्ञाय देहिनां गुरुणा । सद्धर्मदेशनापि हि कर्त्तव्या तदनुसारेण ॥ ५३ मूलार्थ-ए रीते धर्मगुरुए मनुष्योना बाल, मध्यम, बुध 'विगेरे भावोर्नु यथास्थित स्वरूप जाणी उत्तमधर्मनी देशनाउपदेश तेओने जेम सुदृढ रीते उपकारी थाय ते प्रमाणे ज आपवो ॥ स्पष्टीकरण-'एवं' आचार्य हरिभद्रसरि कहे छे के-प्रथम कह्या प्रमाणे बाल, मध्यम आदि वर्गोनुं स्वरूप ध्यानमा राखी तेत्रोने हितकारी ज उपदेश धर्मोपदेशके करवो. निदान के-श्रो. तानुं दिल समज्या वगर उपदेशनो प्रवाह छोडवाथी श्रोताने तेनाथी लाभ थाय नहीं अने वक्ताने उलटो केश पेदा थाय छे, बल्के घणीवार श्रोता विपरित परीणामी बनी सदाने माटे धर्मश्रवण करवानुं छोडी दे छे. एटले यत्किंचित् पहेलानो भाव होय तेमां पण हानि पहोंचे छे, एवं उपदेशकने तेटलो
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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