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आयुष्य, नॉम, गोत्र-एरीते शास्त्रोमां कह्या छे. तेना उत्तरभेदो १२० कह्या छे. तेमज आ कर्मोने शुभफल अर्पक अने अशुभ फलार्पक पुण्य तथा पापरूप बे प्रकारे जणावेल के, माटे ग्रंथकर्ता कहे के के-" विचित्रेण" विविध प्रकारना कर्मोथी प्रात्मा बद्ध छे, अतएव विविध फलोनो अनुभव पण आत्मा करे के. एवं " मुक्तश्च तद्वियोगात्" दर्शित आठे कर्मोंनो सर्वथा वियोग, विलय थवाथी आत्मा अने कर्मों सर्वथा भिन्न भिन्न थवाथी आत्मा शुद्ध, निर्दोष स्फाटिकरूप चैतन्य स्वरूप पामी मुक्त-सिद्ध थाय के एटले आत्मा केवल सद्चित् आत्मरूपनेज अनुभवे छे. निदान के-पछी सुख-दुःख, जन्म-मरण, रोग-शोक, मनुष्यादि भावोर्नु पर्यटन छूटी जाय के. टुंकमां ए रीते परिणमनभाववाळो विचित्र कर्मोथी बद्ध अने कर्मोथी छूटो थनार एवो आत्मा के एम सिद्ध कर्यु.
अहीं प्रसंगवशात् जणावयूँ जोइये के-कर्मो जड पुद्गलस्वरूपी अतीन्द्रिय वस्तु छे, अने आत्मा चैतन्य ज्ञानादि स्वरूपवान् छे. निदान के-वस्तुतः प्रात्मा ज्ञानादि धर्मोने मूकी अन्य क्षणिक सुख-दुःख, रोग-शोक, जन्म-मरण, मनुष्यादि पर्यायरूप धर्मवान नथी किन्तु कुहाडो के तरवार जड छतां मनुष्यना हाथमां पाव्या पछी मनुष्यना प्रयत्नथी काष्ठ आदिने कापी नांखे छे, पत्थर पण जड छतां ग्राहकना हाथमां पाव्या पछी अन्यने मारवा समर्थ बने छे, एवं कर्मों पण आत्माना संयोगने पामी आत्मस्थ बनी आत्माने तत्तत्पकारना भावोमय