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________________ ( ३८) शक्त छे. प्रथम तो यज्ञ धर्म्य छे के नहीं ए मुख्य विषय विवादग्रस्त छ, तथा यज्ञ सिवाय दानादि क्रियाथी स्वर्ग न मलतुं होय अने यज्ञथी ज स्वर्ग मलतुं होय तो स्वर्गार्थी माटे, अशक्यतया यज्ञ विधेय मनाय खरं. आम छतां आटलुं तो चोकस जाणवू के यज्ञ ए आरंभक्रिया होवाथी स्वर्ग तो दूर रह्यु, किन्तु मनुष्यपणुं पण तेनाथी प्राप्त थर्बु असंभवनीय छे. एवं तेमां जे हिंसा थाय ते पण क्लिष्ट परिणामशून्य तो नथी ज. याज्ञिको तेमां जे पशुश्रोनो होम करवा बेसे छे ते काइ तेश्रोनो कोइ पण प्रकारे बचाव ज करवो, तेोने दुःख न थाय तेम वर्तवू, दयाबुद्धि राखी यज्ञ करवो विगेरे कांइ विचार राखता होय ए संबंधमां अनुभव अने युक्तियो सर्वथा ना कहे छे. अरे! जे पशुओ लांबा बराडा पाडता होय, अग्निथी त्रास पामी मृत्युना भयथी दूर भागता होय तेने बांधी, जबरजस्तिथी जकडी, निर्दयतापूर्वक चांडालनी माफक टुकडा करी तेनो होम थाय, तेनी शेषायो सानंदपणे खवाय ते हिंसामा यदि पुण्य होय, अनुकंपाभाव होय अने तेथी स्वर्ग प्राप्त थाय तो माता-पितानो यज्ञ शा माटे न करवो ? परमार्थ के-ए हिंसा क्लिष्ट परिणाममय अने दयाबुद्धि रहित होवाथी अधर्म्य अने एकान्त त्याज्य ज छे,एटले ते सापवाद केम कहेवाय ? सापवाद प्रवृत्ति तो तेज कहेवाय के जेनाथी आत्मकल्याणना मार्गमां स्खलना न थाय अने उत्सर्गमार्गनी एकान्ततः पुष्टि ज करे, अतएव याज्ञिक हिंसा तो उत्सर्गपथनो ध्वंस करी आत्माने दुर्गतिमां घसडी जाय छ,
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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