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________________ ( ४०५ ) प्रवाह चाल्या करे छे, अगर परमात्मानुं ध्यान ए सम्यक्त्वनुं अंग छे, तथा अन्य जनो आ प्रतिष्ठा निहाळी तेनी प्रशंसा करे छे, अनेक लोको तेनुं ध्यान, अनुमोदन अने पूजन करे छे, अतएव आ लोको पण शुभपुण्यनो बंध पामी पुण्यकार्यनो प्रवाह हेवडावे छे, स्वहृदयने निर्मल करी समकितनो लाभ करे छे, एटले अनेक आत्माओने आ प्रतिष्ठा शोभन फलदात्री थवाथी खास 'बीजन्यास' रूप बने छे. आटलाथी ज आ प्रतिष्ठानुं कार्य पूर्ण थतुं नथी, परंतु बीज जेम उत्तरकालमा अनेक फलो अर्पे छे तेम अहीं आ ' बीजन्यास ' पण आत्मिक अभ्युदय - उन्नतिक्रममां सहायक थवा साथै सद्योगावंचक, फलावंचक अने क्रियावंचक ए त्रण योगरूप फलप्राप्ति करावे छे. निदान ए के - पुण्यानुबंधी पुण्यनो बंध थया पछी अथवा समकित प्राप्त थया पछी विशुद्ध आत्मा उत्तरोत्तर चडती ऋद्धिओनो अनुभव करे छे, उत्तम उत्तम स्थानमा अने विशिष्ट गतियोमां के ज्यां संपत्ति, आनंद, निर्भयता अने गुणप्राप्ति तथा धर्मप्राप्ति वाय त्यां जन्म धारण करे छे ने परिणामे आत्मिक उन्नतिक्रममां आगल वधे छे; कारण के-समकित लाभ थया पछी शास्त्रकर्ता कहे छे के – “ समद्दिहि जीवो विमाणवज्जं न बंधए आउं" सम्यग्दृष्टि आत्मा वैमानिक देव सिवाय अन्य आयुष्यनो बंध न करे. आथी आ ' बीजन्यास ' अभ्युदय - उन्नतिसहायक कयुं तेमज समग्र योगोनी अवंचकता
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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