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________________ ( ४०४ ) सकलावश्चकयोग प्राप्तिफलोऽभ्युदयसचिवश्च ॥८-१३॥ मूलार्थ-आ प्रतिष्ठा विधानथी मुक्तगत परमात्मामां स्वहृदयनी स्थापना थवाथी परम-उत्कृष्ट आ बीज-सम्यक्त्वनो न्यास थाय छे के जेनाथी भविष्यमा समग्र अवंचककयोगोनी प्राप्ति अने उत्तरोत्तर आत्मिक ऋद्धिओनो संयोग थाय छे. " स्पष्टीकरण" प्रतिष्ठाकर्ता अने कारयिता बाह्य जिनमूर्त्तिमां मुख्य देव विषयक निजभावनी स्थापना करी शुं लाभ प्राप्त करे छे ? ते अहीं ग्रंथकर्ता दर्शावे छे. एटले आ लोको 'बीजन्यासः' बीजनो न्यास अर्थात् बीजनी वावणी करे छे, तो जेम कृषिकार चोमासानी आदिमां भूमिमां बीजनुं वावेतर करे छे तेथी परिणामे ए वावेतर अनेकधा फलदायी बने छ तेम अहीं पण बाह्यप्रतिष्ठा करवाथी कर्ता अने कारयिता उभय स्वहृदयरूपी भूमिमां तेमज अन्य भव्यात्माना हृदयरूप भूमिमां पुण्यानुबंधीपुण्यरूप अथवा सम्यक्त्वरूप बीजनी स्थापना करे छे. परमार्थ ए केप्रतिष्ठा करती वखते कर्ता तथा कारयिताना हृदयो परमात्माना ध्यानमां निमग्न बने छे. खास परमात्मानुं ध्यान करवु ए शुभ पुण्यबंधनुं परम कारण छे. एथी उत्तरोत्तर पुण्य
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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