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________________ ( ३९० ) नाम प्रधान - मुख्य प्रतिष्ठा शास्त्रकर्ता कहे छे. अहीं मूलमा " हन्तेषैवेति " हन्त एटले निश्वयथी आ ज प्रतिष्ठा मुख्य छे, एम भारपूर्वक जणावी ध्वनित करे छे के मुतगत आत्मानी अथवा अन्य देवजातिप्रविष्ट आत्मानी प्रतिष्ठा अहीं स्वीकृत नथी एटले पूर्वोक्त " प्रतिष्ठा कोनी करो छो ? " ए शंका निरस्त थाय छे. वस्तुतः अमे अन्यनी प्रतिष्ठा स्वीकारता ज नथी. ए प्रमाणे समाधान कर्या पछी " अपथ्यं आतुरे " ए न्यायी वादी फरी शंका करे छे के देव संबंधी निज भावनी प्रतिष्ठा मानवी, ए अपेक्षाए मुक्तिगत आत्मानी प्रतिष्ठा शा माटे न मानवी ? कारण के निजभावनी अपेक्षाए मुक्तगत आत्मा साक्षात् परमात्मा अने साक्षात् आराध्यतत्त्व छे, अतएव तेनी प्रतिष्ठा मानवी ए ज वस्तुगत्या सुघटित कहेवाय. ए प्रकारनी वादी - शंकानुं समाधान आचार्यश्री आ ते अहीं दर्शावे छे. मुक्यादौ तत्त्वेन, प्रतिष्ठिताया न देवतायास्तु ॥ स्थाप्ये न च मुख्येयं, तदधिष्ठानाद्यभावेन ॥ ८–६ ॥ मूलार्थ — वस्तुगत्या मोक्षमां स्थित सिद्ध परमात्मा
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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