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________________ ( ३८९) एटले मुख्यतः स्वहृदयमा परमात्मानो आभास करवो अने पछी ते आभासने मूर्तिमा उतारवो-आरोप करवो आ आरोपने महर्षिओए बे विभागमा विभक्त कर्यो छे. प्रथम तो स्वात्मामां परमात्मानुं बराबर ध्यान करवू ते मुख्य अने बीजो बाह्यमूर्तिरूपे खडो करवो ते गौण. आने ज शास्त्रक ए प्रतिष्ठा एवी संज्ञा अर्षी छे. परमात्मानुं ध्यान करी आत्मामां पूर्ण परम शान्तिरस प्राप्त करवो ते ज परमात्मपूजन- अलौकिक फल मान्युं छे, एटले अंतरमा परमात्मचिंत्वनद्वारा निजभावनी विशुद्धि थाय, निजात्मा परमात्म तुल्य छे एवो अबाधित बोध थाय अने त्यारपछी ज आत्मामां परम शान्तिरस विस्तरे. आ परम शान्तिरसप्राप्तिमा मुख्य कारणप्रधानबीज अंतरमा स्थापित परमात्म संबंधी विचारो ज थाय छे, ते सिवाय अन्यथा प्रकारे शान्तिरसनो लाभ थतो नथी. तेमज निजभावनी विशुद्धि बाद स्वात्मामां परमात्मानो ख्याल थया पछी स्वात्मा अने परमात्मभावनो अभेद बोध थाय, अतः शास्त्रकर्ताए अहीं स्वात्मामां देवविषयक निजभावनो आरोप करवो तेनुं ज नाम प्रधान प्रतिष्ठा जणावी. आ सिवाय अन्य प्रतिष्ठाने अप्रधान कही, तेमज बाह्य जिनमूर्तिमां पण निजभावनो आरोप करी ते ज जिनमूर्तिद्वाराए परमात्म स्वरूपनो विचार करवाथी अंतरमां निजभावनी वृद्धि थाय अने शान्तरसनी अलौकिक प्राप्ति थाय छे. आ हेतुथी पण देवविषयक निजभावनी स्थापना करवी तेनुं
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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