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________________ (३९१) दूर होवाथी अहीं रहेल जिनमूर्त्तिमां तेनी स्थापना थइ शके ज नहीं, तेमज आ स्थापना पण मुख्य-प्रधान योगीओए मानी नथी. निदान ए के-मृतिमां ते परमात्मा परमार्थथी आश्रित अथवा सांनिध्य थता नथी. " स्पष्टीकरण" प्रतिष्ठा एटले स्थापना ए अर्थ अनेक वार कही गया छीए, अतः स्थापना वस्तुतः तेनी ज कराय के जे स्थिति करे, स्वस्थान माने. जेओ स्थानने स्वस्थान मानता नथी, जेओ स्थान अंगीकार करी तेमां स्थिति कदापि करता ज नथी तेनी स्थापना ए तो “माता मे वंध्या" जेवं वाक्य गणाय. अष्टकर्मक्षयना अंते परमात्माओ निर्मलरूपे सिद्धिमा बिराजे छ, अहीं आववानुं कारण प्रथमथी ज जेओए भस्मवत् कयुं छे, एटले तेओ अहीं क्यांथी आवी शके ? कदापि तेओ आवी शके नहीं. आम वस्तुस्थिति होवाथी मोक्षगत सिद्धखरूप परमात्मा अत्रस्थ पाषाणरूप जिनमूर्ति तेमां मंत्रादि अनेक असंख्य संस्कारो करबा छसां कदापि निवास-स्थिति करे ए नितान्त अघटित कहेवाय, एटले सिद्ध परमात्माने ममत्व, अहंत्व, आ मारुं निवासस्थान विगेरे भावो आविर्भूत थाय नहीं. अतएव मूर्तिमा तेओनी स्थापना करी तेने प्रधान प्रतिष्ठा मानपी ए केवल हास्यचेष्टा ज गणाय. वळी मूर्तिमां परमात्मानुं सानिध्यपणुं न थवाथी ते प्रतिष्ठाने शास्त्रकर्ताए मुख्य प्रतिष्ठान्त
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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