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मूलार्थ-चारित्रनो नाश थाय तेवा गुरुदोषो-म्होटा पापोर्नु सेवन करे, प्रारंभ करे, अने न्हाना पापोनो बचाव करे तेनी यतना पाले, तथा उत्तम पुरुषो, सज्जनोनी निंदा करे विगेरे लक्षणोथी निपुणबुद्धि-बुधजनो शुद्ध अने अशुद्ध त्यागनी परिक्षा करी जाणे छ ।
" दांभिक त्यागनी परीक्षाना साधनो"
स्पष्टीकरण-शुद्ध अशुद्ध त्यागनी परीक्षा त्यागीोना विशिष्ट वर्तनथी ज थइ शके ए वात उपर जणावी गया छे. फरी ा वातने ज हरिभद्रसूरिजी अहीं स्पष्ट करे छे. जेलो त्यागीपणानु अभिमान अने तेनो वेशधारण करी त्यागीपणानो म्होटो डोळ धाली लांबी लांबी वैराग्यनी वातो करी, हजारोने प्रात्मकन्याणनो उपदेश आपी, संसारनी असारता, लक्ष्मीनी चपलता, विषयोनी दुरंतता विगेरे जणावी, पोतेज शासनना उड्डाह थाय, अधमनी वृद्धि थाय एवा प्रकारना अने चारित्रनो जडमूलमांथी ज नाश थाय, चरणसित्तरि अने करणसित्तरिनो सर्वथा लोप थाय, महाव्रततनो गंध पण न रहे तेवा गुरुदोषो-म्होटा दोषोनुं सेवन करे जेवा के-स्त्रीसंग, छोकराओ आदि साथे दुनिया विरुद्धकर्म, हस्तकर्म विगेरे पापकर्मों, शिष्यादि वधारवा अनेकधा मायावादो, छळ, प्रपंचो खेलवा, पुस्तकादिना निमित्तथी गुप्तरीते हजारो रुपीयानो संग्रह अने बीजा हाथे व्याज विगेरे उपजाव, शरीरनी पुष्टि माटे रोगादिकनुं निमित्त निकाली