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________________ (२७), ते अशुद्धचारित्र. अहीं शुद्ध तथा अशुद्धपणानी परीक्षा पंडितजनो ज करी शके. ॥ "सदनुष्ठानना भेदो" स्पष्टीकरण-अनुष्ठान एटले बाह्यवर्तन, आ वात उपर जणावी गया. या अनुष्ठान बे प्रकारनुं कर्तुं छे. चारित्रमोहनीयकर्मना क्षयथी अथवा उपशम थवाथी आत्मानी विशिष्ट त्याग तरफ जे अभिरुचि प्रगटे, आत्मा पौद्गलिक भावो प्रति वैषयिक सुखो तरफ अने संसारना मोहक पदार्थों प्रति, उदासीन भावथी, कर्मवर्धकमावथी, हेयपणे समजी तेनी लालसा रहित बने, एवं शास्त्रनिर्दिष्ट आज्ञानुसार जे क्रियापोर्नु सेवन, पालन करे, टुंकमां ज्ञानविशिष्ट वैराग्यवडे जे चारित्र प्राप्त थाय आने ज शास्त्रकर्ताओ सदनुष्ठान कहे छे. मूलमां 'नियमात्' ए पद छे, एटले निश्चयथी आ ज सदनु. छान शुद्ध कहेवाय. निदान के-जे चारित्रमा ज्ञानविशिष्ट वैराग्य होय ते चारित्र शुद्ध अने वंदनीय जाणवू, सिवाय पूजावा मनावा खातर अथवा स्वर्गसुख, राज्यलोभ, धनलोभ, यश कीर्ति माटे जे त्याग स्वीकाराय ते अशुद्ध अनुष्ठान कर्तुं छे. यद्यपि बन्ने अनुष्ठानो बाह्यदृष्टिए तुल्य मालुम पडे छे तदपि एक त्याग शुद्ध आत्माभिमुख-मोक्षाभिमुख होवाथी अंतरंग पवित्र विचारोथी नितान्त बाह्याभ्यंतर बन्ने रीते शुद्ध छे अने बीजो त्याग मलीन वासनापोथी वासित होइ मर्वथा अशुद्ध छे. एटले पहेलो त्याग ज्ञानविशिष्ट वैराग्यनुं फलरूप छे; ज्यारे बीजो
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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