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________________ ( २६ ) प्रकट थाय अने त्यारपछी तेना फलरूपे बाह्यक्रिया - सद्वर्तन विशिष्ट प्राचारोनो जन्म थाय छे. एटले चारित्र ते कार अने सदनुष्ठान तेनुं फल कार्यरूप छे, माटे अहीं कार्यमां कारणनो उपचार आरोप करी चारित्रने ज- श्राभ्यंतरत्यागने जसदनुष्ठान कं. निदान के—सुंदर सदनुष्ठान श्राभ्यंतरत्यागपरिणति विना मली शके नही आ रीते सुंदर सदनुष्ठान तेज जाणवु के-जे परमार्थ - चारित्र - सत्यचारित्र होय. श्रीं वर्तन बाह्य क्रियारूपी चारित्रनी परीक्षा करवा मध्यमबुद्धिजनो प्रवृत्ति करे छेः माटे तेश्रोने बालवर्ग करता चडती कोटीना का आटलं विशेष जाणं. हवे उपरोक्त सदनुष्ठान तो शुद्ध तथा अशुद्ध एम बे प्रकारनुं छे. अतएव च बजे प्रकारनुं सदनुष्ठान ग्रंथकर्ता जगावे छे. परिशुद्धमिदं नियमादांतरपरिणामतः शुपरिशुद्धात् ॥ अन्यदतोऽन्यस्मादपि बुधविज्ञेयं त्वचारुतया ॥ ८ ॥ मूलार्थ - सुविशुद्ध - अतिनिर्मल एवा आत्मीय परिणाम-पूवर्क जे सदनुष्ठान प्रगटे ते सर्वतो शुद्ध चारित्र जाणवुं, अने ए सिवाय अन्य कारणोथी जे बाह्य अनुष्ठान प्राप्त थाय
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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