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( २५ ) प्रतिषेध विनानुं अथवा उभयकोटी पैकी एक ज विधि या प्रतिषेधकोटीवालुं चारित्र न कहेवाय, कारण के-निगोदवर्ती जीवो हिंसा, जूठ, चोरी, मैथुन विगेरे कांइ करता नथी एटले तेश्रो शुं चारित्री कहेवाय खरा ? नहीं ज. एवं पाषाण अगर लाकडामां अहिंसक, जूठरहित विगेरे भावो स्पष्टतया मालूम पडे छ, अथवा मृञ्छित मनुष्यमां आ चिन्हो मालूम पडे छे तो शुं ते पदार्थो चारित्री कहेवाय ? नहीं ज. या हेतुथी विधि-प्रतिषेधरूप ज चारित्र अत्रे अपेक्षित छे एम 'खलु' ए वाक्यथी जणाव्यु. आनो मथितार्थ मूलकर्ता जणावे छे के'असदारंभविनिवृत्तिमत्तच्च' असद्-बूरा-खोटा एवा जे आरंभो के जेनाथी भवनो प्रपंच वधे, अनंतकर्मोनो बंध थाय, आत्मा जन्म-मरणना फेरामां भटके, छक्कायनो वध क्षणे क्षणे जेमां होय, तेनो त्याग-निषेध जे वर्तनमां होय ते अहीं चारित्र जाणवू, आवा चारित्रने शास्त्रकर्ताओ सदनुष्ठान कहे के. " सदनुष्ठान- लक्षण"
शास्त्रमा आत्मीय विशिष्ट त्यागरूप परिणामर्नु नाम चारित्र कह्यु के. ने बाह्यक्रियारूप सद्वर्तन- नाम सदनुष्ठान जणाव्युं छे. आ रीते चारित्र तथा सदनुष्ठाननो भेद खुल्लो दर्शान्यो छे, छतां अहीं चारित्रने ज ग्रंथकर्ता सदनुष्ठान जणावे छे. तेनो खुलासो करवा श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी कहे के के-" कार्य हेतूपचारेण" प्रथम प्रात्मीय विशिष्ट परिणामरूप आभ्यंतर चारित्र-लोभ तृष्णा आदिनो त्याग करवारूप भाव