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( ३४८) न्यायार्जितवितेन तु,
जिनबिम्बं भावशुद्धेन ॥ ७-८॥ मूलार्थ-न्यायथी उपार्जित धनवडे तेमज अंतःकरणना पवित्र माशयवाळा गुणोए करीने अधिक एवा शिन्पीना मनोगत अनेक मनोरथोथी सहित एवा कारीगर पासे नियमथी भाविके आ जिनेश्वर भगवाननुं बिंब करावq. "कारीगरने संतोषवानुं फल"
स्पष्टीकरण-कार्यना आरंभथी लइ अन्त पर्यन्त कार्यमा गति करनारना शुभ विचारो, शुभ संकल्पो तथा परम उत्साह जेटला प्रमाणमां होय तेटला ज प्रमाणमां कार्यनी सुंदरता तथा सरलता अवलंबी रहे छे. अहीं जिनबिंबनी परम मनोहरता, चमत्कारिता अने परहृदयाकर्षणता भादि सद्गुणो जिनबिंबमां लाववा माटे मुख्य आलंबन कारीगर उपर रहे छे. एटले जो के जिनेश्वर देव पोते ज अनन्तगुणाधीश छे तो पण तेओनी मृतिमां तो भा गुणोनी भाभा त्यारे ज उल्लसी भावे के ज्यारे कारीगरना हृदयमां ते गुणोनी छाया परम अनुराग अने जिनदेवनी मूर्ति परत्वेनी परम प्रसन्नता उल्बसायमान होय तो ज. अन्यथा एकनी एक ज मूर्चि ते कारीगरो बेडोळ, मनोहरता अने चमत्कारिताशून्य तथा उत्साह-आनंदनो घात करनारी बनावी दे. निदान ए के चित्र अथवा मूर्तिनी मनोहरतानो