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________________ ( ३४४) क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या:" "कारण के पवित्रतर क्रियानो पण भाव विना फल प्रापती नथी" ए कथन कल्याणमंदिर स्तोत्रमा उपदेश्युं छे. अतएव अहीं मंदिर अने जिनप्रतिमा अधिकारमा विधि तथा शुद्धिनी मुख्यता भने कारीगर साथे उचित प्रशंसनीय, धर्मवृद्धि थाय तेQ वर्तन राख वार्नु कही गया; किन्तु आ सर्व साधनो छता जो भाव-हृदयनी परमपवित्रता आत्मोल्लास न होय तो ते साधनो कार्यजनक बने नहीं. निदान ए के-सर्व साधनो साथे भाव पण मुख्य मान्यो छे. आथी अहीं पण शास्त्र. कर्ता दर्शाचे छ के-जिनबिंब तथा जिनमंदिर बनावनारनो जेटला प्रमाणमां हृदयोलास प्रेम अने पवित्रतामय होय, आत्मा उल्लासमय होय अने ते पण विष तथा मंदिर पासेथी प्राप्त थयुं होय अर्थात् तेनाथी उद्भव्युं-बन्युं होय, ते ज संतोष, प्रेम, पवित्रता आदि अनेक भावो पैकी अमुक मावो मंदिर तथा वित्र करावनारने कराववामां परमार्थथी साधनभूत बने छे. एटले मंदिरादिना प्रेमथी आविर्भूत पवित्र हृदयभावो भविक आत्माने मंदिर आदि कराववामा प्रेरणा करे के. अतः प्रथमतया भाविकचं हृदय उपरोक्त मावोथी बराबर परिणत थर्बु जोइए. भावोनी सुवासनाथी सुवासित थवा पछी ज तेना संस्कारवलथी भविक भात्मा विधि-शुद्धिनुं रक्षण करवापूर्वक कारीगरो साथे योग्य वर्तन राखवा काळजी राखे ने मंदिर तथा विवजन्य सुष्टु
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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