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________________ ( ३२७) मंदिरोमां घणे स्थळे देखवामां आवे छे. बीजं कारण ए पण जणाय छे के ते समये बादशाही जुल्मो थता हता, एटले धर्मव्यवहारो बहु ज गुप्तपणे रखाता हता. मुसलमानी अत्याचारोना लीधे स्त्रीओ पडदामां ज रहेती हती अने वधारे वखत इतर इतर स्थानोपां जइ शकती नहीं, एटले मंदिरो अने व्याख्यान स्थळो साथे साथे राखी तेने घणा ज गुप्त स्थळमां राखबानो प्रचार हशे. आ स्थितिनुं भान अत्यारे पण आपणे पूर्वना मंदिरो देखी अनुमान करी शकीए छीए. गमे तेम हो, परन्तु मंदिरनी साथमां ज व्याख्यान के मुनि. निवासना स्थानो करवाथी वर्तमानमां तो आशातना अने अन्य अनर्थ- कारण थाय छे, तेमज आचार्यनो काइ एवो मत नथी के मंदिरथी अलग दूर व्याख्यान अगर मुनिनिवासन स्थान न कर. ए तो गृहस्थनी सरलतानो विषय छे. तेमज ते काळे मुनियो कदाचित् ज शहेरमां आवता हता अने आवी दर्शन व्याख्यानादि करी चाल्या जता हता. कोइ बाल, ग्लान के वृद्ध मुनियो पण कारणवशात् अमुक समय रहेता एटले तेत्रो माटे ते स्थान व्याघात करनार न गणाय, तथा मूळकर्ता भगवान् हरिभद्रसूरिजी तो एटलं ज कहे छ के‘तिष्ठंति यथा च ते तथा कार्य' मुनियो अावीने स्थिति करे तेम मंदिर बंधावयु अर्थात् आशातना न लागे, बीजा दोषो उद्भवे नहीं ते अवश्य ध्यानमा राखq. साधु योग्य स्थान करवानुं बीजु कारण ए छे के जो तेवू स्थान न होय तो मुनियो आवे नहीं अने तेम बनवाथी धर्मोपदेश मळे
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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