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( ३२६ ) बन्या होय, आपसना क्लेशने लीधे मंदिरनी एकांत उपेक्षा करता होय, अनेकधा विविध उपदेश आपवा छतां मानता ज न होय, आसपासनो कोइ धर्मी सारसंभाल के आशातना दूर करतो न होय, सर्वथा मंदिर, प्रतिमा, तेनुं धन विनाश पामतुं होय, आशातना घणी ज थती होय, कोइ सेवक पण न मलतो होय, तो ज आचारनिष्ठ गीतार्थ परम श्रद्धालु मुनि महात्मा आ कार्य करी शके तेश्रोना माटे ज ा अधिकार छे, कारण के आवा मुनियो ज्यां सुधी उचित वहीनट करनार न पळे त्यां सुधी उपरोक्त कार्य अलिप्त मनथी बधुं करी शके अने उचित वहीवटकर्ता प्राप्त थये तुरत ज तेने स्वाधीन करे. आथी ज प्राचार्य मुनियोनो निषेध करी गृहस्थने वहीवट करवानो उपदेश प्राप्यो.
तथापि ते मुनियो आवीने धर्मोपदेश माटे त्यां निवास करे, बाल, वृद्ध, ग्लान मुनियो त्यां स्थिति करे, प्राथी गृहम्थे मंदिरनी बहार एटले नजीकमां आधाकर्म दोष विनानु एक स्थान अवश्य तैयार करवू जेथी मुनियो त्यां स्थिति करी धर्मोपदेशादि करी शके. अहीं उपाध्यायजी टीकामां 'बहिर्भडपादौ ' ए पदथी मंदिरनी बहार मंडपमा व्याख्यानादि माटे स्थान करवानुं जगावे छे. आनुं कारण एक ज के मंदिरे दर्शन-पूजन माटे जे लोको आवे ते लोको दर्शन-पूजन करी तुरतज व्याख्यान अने मुनिदर्शननो लाभ पामी शके. आवा व्याख्यान स्थानो मेवाड, मालवा के मारवाडना जुना