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( ३२८) नहीं ने अंते स्वकुटुंब, स्वजाति धर्महीन थाय, एटलुं ज नहीं पण श्रावके ज्यां जिनमंदिर होय, ज्यां मुनियोनुं आवागमन होय, ज्यां अन्य समानधर्मीनो संयोग होय त्यां ज निवास करवो, ए ज वात शास्त्रकार दर्शावे छे. “निवेसज्ज तत्थ सद्धो साहूणं जत्थ होइ संपाओ। चेइयघराइ जमिय तयन्न साहम्मिया चेव" ॥ १॥ फरी आ जिनमंदिर श्रावके ए प्रमाणे करवू के अक्षयनीवि बने अर्थात् मंदिर सर्वन आधारभूत होवाथी दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणनी वृद्धिकारक होवाथी, जेम नीवि एटले मूलधन तेनुं रक्षण करवाथी, व्याजे फेरववाथी ते कायम अक्षय रहे छे तेम मंदिरखें रक्षण करवाथी, उचित देखरेख राखवाथी ते पण अक्षयनीवि जेवू थाय, एटले उत्तरोत्तर लाभनुंज कारण थाय. आप्रमाणे करवाथी परंपराए जीर्णोद्धारादि कार्यों कराववाथी बनावनारने अने अन्यने उपकारभूत थइ आखा कुटुंबने तरवार्नु साधन बने छे. परमार्थ ए के-जिनमंदिर बंधाव्या पछी, तेनुं रक्षण कर्या पछी, भविष्यमा थनारी पोतानी प्रजा अने कुटुंबीअोने धर्मप्राप्तिनुं स्थान बने छे, तेमज आ मंदिर अमारा पूर्वजोए बंधाव्युं छे माटे
आनो जीर्णोद्धार, रक्षण अने प्रबंध अमारे करवो जोइए. ए प्रमाणे पक्षपात बंधाइ धर्मयां जोडाय छे. एटले जेम प्रवहण स्व अने परने तारे के तेम आ जिनमंदिर पण अनेक भावि पुरुषोने तारनार बने छे. अहीं उपाध्यायजी वधारे खुलासो करे छे. स्ववंशजकृत मंदिरद्वारा धर्मप्राप्ति थवाथी ते मंदिर