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कारण के गृहस्थी जंजाली अने उपाधिवाळा होय एटले तेश्रोथी बराबर संभाळ थाय नहीं, आशातनाओ टळे नहीं, साधुओ तेर्नु उचित रक्षण करे, आशातनाओ दूर करे, त्यां निवास करे, मंदिरे आवनारने उपदेश आपे, जेथी धर्मनुं पण योग्य रक्षण थाय. आ उपदेशथी गृहस्थो मंदिर बंधावी चैत्यवासी मुनियोने सोंपता हता. चैत्यवासीओ त्यां ज रहेता हता. मंदिरना मालिक बनी मंदिरना धननुं भक्षण करता हता. परिणामे तेत्रो अने गृहस्थो धर्मभ्रष्ट थइ पतित थतां. आ चैत्यवासीयो हरिभद्रसूरिजीना समयमां बहु जोरमां वध्या न हता तो पण तेश्रोनो प्रचार थवा लाग्यो हतो. तेओना उपदेशनी असर केटलाक लोको पर थती हती. या वात संबोधप्रकरण ग्रंथ परथी जोइ शकाय छे, परंतु आ चैत्यवासीमोनुं जोर त्यारपछी घणुं ज वधी गयु. जे पछी बुद्धिसागरमूरि अने जिनेश्वरमरिए चैत्यवासीमोना बलने अटकाव्युं यावत् जिनवल्लभगणिए पण तोडवानो प्रखर प्रयत्न को. चैत्यवासीमोनी तत्संबंधी मान्यतानुं स्वरूप संघपट्टकमां जिनवल्लभगणिजीए घणा विस्तारथी कयुं छे.
अतएव प्राचार्य कहे छे के मंदिरना जीर्णोद्धार, व्यवस्था, रक्षण आदि कार्यो गृहस्थे करवा पण मुनिए करवा नहीं. जो के शास्त्रमा मंदिरना सर्व कार्यों यावत् धनरक्षण, संवर्द्धन, ग्रामक्षेत्र आदि वहीवट करवानुं मुनिने आज्ञा आपी छे, परंतु आज्ञा अपवाद मार्गाश्रित होवाथी ज्यारे गृहस्थो धर्मविमुख