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________________ ( २९२ ) उदारता, भक्तिनो अतिरेक, प्रमोदना असह अहोभाग्य पानी न्यायप्राप्त कल्पनीय श्राहारादि गुरुपात्रमां मूकवा, अल्पमां अल्प सात पगलां गुरूने वळाववा जनुं, वारंवार सुखशाता पूछवी, विनयथी धर्मचर्चा करवी तथा पठन पाठन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि क्रियाओ करवी तेमज प्रतिक्रमण प्रतिलेखना पण उचितकाले करवी. शास्त्रमां जे जे क्रियाओ जे जे काले करवानो उपदेश कर्यो छे ते ते क्रियाओ करवी. आ क्रियाओ पण अनेक प्रकारनी वचमां आवती स्खनाने दर करी, विघ्नो-अंतरायोथी अडग रही करवी. निदान ए के धर्मक्रियानुं आचरण करतां अवश्य परीषहो, कष्टो, अपमानो, प्रमादो, विकथाओ विगेरे अनेक अंतरायो धर्मक्रियाथी चलित करवा अकस्मात् आडे आवे पण ते सर्वने दूर करी निर्भय बनी पुरुषार्थपूर्वक उपरोक्त धर्मक्रियानुं श्राचरन, पालन, अभ्यास विगेरे करवा. आ कार्योंनी ए रीते प्राप्ति थवाथी एटले ए कार्यो आचरवाथी ग्रंथकर्ता कहे छे के आनुं नाम लोकोत्तरतत्त्वप्राप्ति थइ कहेवाय अर्थात् ए प्रमाणे वर्तन करवुं तेनुं ज नाम लोकोत्तरतत्व छे. ए सिवाय अन्यने लोकोत्तरतत्त्वनी संज्ञा नथी. यशोविजयजी महाराज कहे छे के - विधिसह दान पूजा ने सेवानुं आचरण करवायी ते ज महादान, इष्टपूजा अने सत्सेवा ए नामथी या क्रियाओ अंकित थाय छे. या सर्व केम प्राप्त थाय ? तेनो अहीं खुलासा करे छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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