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________________ (२९१) इत्यादि कृत्यकरणं, लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिः॥ ५-१५॥ मूलार्थ-विधिथी जेम पूजानुं कर्तुं तेम विधिथी धर्माचार्य आदिनी सेवा, भक्ति, पूजा विगेरे करवी, अने योग्य अवसरे स्वाध्याय, ध्यान, पठन आदि धर्मव्यापारो विनोअन्तरायोने दूर करी करवा. इत्यादि उपर कथित कार्योर्नु विधान करवाथी लोकोत्तरतत्वनी प्राप्ति थाय अर्थात् आनुंज नाम लोकोत्तरतखनो लाभ कह्यो छे. "स्पष्टीकरण" देवनी पूजानुं स्वरूप उपर विस्तारथी विचारी गया. हवे गुरुसेवा आदि कार्यों केम करवा ते विचार आचार्यश्री अहीं जणावे छे. जे वात अन्यत्र कही जे ते ज अहीं पुष्टि माटे दर्शावे छे अथवा देवर्नु यथार्थ स्वरूप, पूजार्नु यथार्थ रूप धर्माचार्यों पासेथी ज उपलब्ध थाय के माटे गुरुभक्तिनुं स्वरूप ऋहीं नणावे छ. शास्त्रोक्त विधिथी पूजा करवानुं शास्त्रोमां नेम कहुं छे तेम गुरुसेवा, भक्ति, पूजा पण विधिपूर्वक ज करवी एटले धर्माचार्यो-त्यागी, शुद्ध सन्मार्गदर्शक गुरुप्रो-नी आहार, पात्र, औषध, मकान आदिथी शुश्रूषा विधिथी करवी. भावार्थ ए के-गुरु सन्मुख जq, पांच अभिगमो साचवा, गुरुने आहारादि माटे निमंत्रणा करवी, आहार लेवा आवे ते समये सामे जवू, पळी वंदना करी अभुटियो खामी विनय, सरलता,
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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