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इतरेतरसापेक्षा त्वेषा,
पुनराप्तवचनपरिणत्या ॥ भवति यथोदितनीत्या,
पुंसां पुण्यानुभावेन ॥ ५-१६॥ मूलार्थ-उपर कहेल सर्व क्रियानो परस्पर सापेक्ष होवाथी, उपरोक्त स्वरूपवाली अने परस्पर अपेक्षा राखनारी या सर्व क्रियाओनी प्राप्ति पुरुषोने पुण्यानुभावथी अने सिद्धान्तवचन परिणमवाथी थाय छे. " स्पष्टीकरण"
शास्त्रोक्त विधिसह एक सुष्ठु क्रिया प्राप्त थाय तो तमाम क्रियायो सुष्टु अने विधि युक्त प्राप्त थाय, तेमज एक क्रिया विधि रहित अने अशोभन होय तो सर्व क्रियायो प्रविधिवाली अने अशोभन होय, या वात अहीं दर्शावे छे; कारण के-दान, पूजा, सेवा आदि कार्योर्नु शास्त्रोक्त विधान परस्पर एq तो गुंथाएल छे के जे महानुभावने सिद्धान्त वचनो बराबर परिणम्या-सिद्धान्तवचनमां अपूर्व श्रद्धा प्राप्त थइ ते महानुभावने शास्त्र आधारथी, एक ज क्रियामां कुशलता प्राप्त थवाथी सर्व क्रियायोनी कुशलता प्राप्त थवामां काई प्रत्यवाय नडतो नथी एटले या सर्व क्रियाओ एक बीजानी अपेक्षा राखे छे. जेमके महादान नामक क्रियामां न्यायवर्तन, पोष्यवर्गनो अविरोध, मातापितानी प्राज्ञा, प्राशयनी पवित्रता,