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________________ ( २९० ) निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याय्यं " ॥ १ ॥ " वीतराग देवनी पूजा करवाथी प्रथम मननी प्रसन्नता वधे, त्यारपछी तेथी समाधिशान्ति एटले कषायो दूर थाय अने ते पछी एकान्त निःश्रेयस - मोक्ष प्राप्त थाय माटे वीतरागदेवनी पूजा करवी, ए न्याययुक्त गणाय. " परंतु या पूजानुं प्रक रण प्रथम कहेल महादान अने दानना प्रकरण पछी जणान्युं होवाथी महादाननी योग्यता प्राप्त करवा आचायें जे जान्युं ते योग्यता पूजकोमां प्रथम अवश्य घ्याववी जोइए. ए योग्यता चाव्या बाद आ वास्तविक पूजानो अधिकार आत्मा पामी शके; अन्यथा ते पूजा ज गणाय. भाश्री ज ग्रंथकारे मूलमां हीं ' उत्तमं विधिना ' आ पदो पर बधारे वजन प्राप्युं छे. परमार्थ ए के न्यायप्राप्त सेवकोने ऋषिरोधी अने वडीलनी श्राज्ञा मुद्रित होय तो ज उत्तम श्रने विधिपूर्वक वीतरागपूजा कहेवाय. उपर आपणे जे वात विचारी गया तेनी ज प्रकारांतरथी फरी पुष्टि करे छे, अथवा उपाध्यायजी कहे छे के-ए जवाब अन्यत्र कही छे तेनो अतिदेश-भळामण अहीं प्रस्तुत ग्रंथकर्ता कहे छे. एवं गुरुसेवादि च, काले सद्योगविघ्नवर्जनया ॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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