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________________ ( १७ ) देखी शके, तुरतज जाणी शके एवो जे वेश-कपडानो आडंबरउपरनी टापटीप. जेमके जैन मुनियोनो पोतवस्त्र, रजोहरण, मुहपत्ति आदि; यतियोनो श्वेतवस्त्र, रजोहरण आदिः संन्यासीअोनो गेरु कपडा, चाखडी, डंड, कमंडल आदि; बावाोनो भभूत, लंगोट, टिलाटपका, चिपियो आदि; फकीरनी कफनि, माला आदि; आ सर्व ते ते लोकोनो बाह्यवेश जाणवो कारण के आथी सामान्य जनता पण विना पूछये जाणी शके छ केआ कोइ साधु या फकिर छे. पण अहीं तत्वदष्टिए तेमां खास धर्म होय एवो नियम नथी, कारण के धर्म साथे बाह्यवेश ऐकान्तिक संबंध धरावतो नथी. परमार्थ के-ज्यां बाह्यवेश होय त्यां धर्म होय, अने बाह्यवेश न होय त्यां धर्म न होय, एवो बाह्यवेश तथा धर्मनो एकान्तव्याप्ति संबंध नथी. निदान केभ्रष्टाचारियो, पासत्यारो, वेशविडंबको अने नाटकीयात्रो तथा यतियो पण आ बाह्यवेष धारण करे छे तदपि त्यां धर्म देखातो नथी. फरी केटलाक महानुभावो उच्च आदर्शपुरुषो बाह्यवेष विना पण धर्मिष्ट देखाय छे, अतएव अत्रे ग्रंथकर्ताए "बाह्यलिंगमसारं" बाह्यलिंग-वेशने असार-तुच्छ कह्यो. परमार्थ के-बाह्यवेश ए खास धर्मप्राप्तिमां हेतुभूत ज छे एवो अखंड्य नियम नथी, तेम वेषविडंबको पण तेनो दुरुपयोग करता नजरे देखाय छे. आबे कारणोथी अहीं वेशने आचार्यश्रीये तुच्छ गण्यो, परंतु ए तो निश्चित छे के-बाह्यवेश धर्मसंस्थापक, मर्यादाबंधक, लज्जावर्धक तो अवश्य छे ज, एटले परंपराए बाह्यवेश
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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