SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८ ) धर्मप्रापक जणाय छे खरो, छतां अहीं जे निषेध जणान्यो के तेनो भावार्थ एटलो ज के धर्मप्रति खास एकान्त, अबाध्य, अनंतर कारण बाह्यवेश नथी, तेमज परंपराए पण कारणभूत शिथिल आत्मानोने ज थाय छ; अन्यने नही ज. आपरथी बाबवेश उपेक्षणीय छे एवं निश्चित समजवानुं नथी, कारण केशास्त्रमा मुख्यतः ते सिवाय मुक्तिनो पण निषेध कर्यो छे, तथा वेशरहित भावचारित्री पण अवंदनीय दर्शाव्यो के. अत: व्यवहारथी ते सर्वथा स्वीकार्य छे, परंतु अत्रे तो तस्वदष्टिनो ज विचार को होवाथी दर्शाव्यो छे, अतः बाह्यवेशने असार-तुच्छ कह्यो, परमार्थमां तो एकान्त अखंडय सत्य होय तेनुं जे प्रतिपादन करवू तेज न्याय गणाय. ॥ व्यवहारमा बाह्यवेश धर्मप्राप्ति प्रति प्रधान कारण मनाय छे, जे बाह्यवेश त्यागर्नु भान करावे छे, जेथी आ कोई; साधुपुरुष छे, एवी लोकोने प्रतीति अने ते द्वारा धर्मप्राप्ति लोकोने थाय छे. आटलुं छतां अहीं वेशने अप्रधान तुच्छ शा माटे प्राचार्ये कह्यो ? आ सचोट दलीलनुं समाधान ग्रंथकार आ रीते करे छे.बाह्यग्रंथत्यागान्न चारु, न त्वत्र तदितरस्यापि ॥ कंचुकमात्र त्यागान्न हि, भुजगो निर्विषो भवति ॥५॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy